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राम विलास पासवान की राजनीति और उनके रास्ते

2005 में बिहार का पहला विधानसभा चुनाव. हवा कुछ-कुछ लालू यादव की आरजेडी के ख़िलाफ़ चलने लगी थी. विरोधी पार्टियों ने आरजेडी सरकार के जंगलराज का जमकर प्रचार किया. चुनाव हुआ और जब परिणाम आया तो मामला फंस गया. आरजेडी के जंगलराज के बावजूद मुकाबला त्रिकोणीय हो गया. राजद और कांग्रेस को मिलकार हो या जदयू-बीजेपी को, किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ रही लोजपा ने 29 सीटें जीती और किंगमेकर बनने की स्थिति में थी. लोजपा के इतिहास में सबसे ज्यादा सीटें उस समय ही मिली थी. उसके कई कारण है, खासकर पासवान जाति और कई अन्य पिछड़ी जातियों को लोजपा ने एक विकल्प दिया था. अपने प्रदर्शन से प्रभावित राम विलास पासवान ने किसी का भी साथ देने के लिए एक शर्त रख दी. उन्होंने कहा कि जो भी दल मुस्लिम या किसी पिछड़ी जाति का सीएम बनाएगी वे उसी को सपोर्ट करेंगे. कोई भी पार्टी इस बात को मानने को तैयार नहीं थी और इस सपोर्ट के बिना सरकार नहीं बन सकती थी. यहां एक बात गौर करने वाली है कि पिछले 2 दशकों में इस तह से मुखर होकर शायद ही किसी पार्टी या बड़े नेता ने ऐसी मांग की हो. ये मांग और बिहार में एक स...

'ब्रह्म बाबा' और वैशाली लोकसभा क्षेत्र की जनता

वैशाली लोकसभा सीट. ये वही सीट है जहां से रघुवंश प्रसाद सिंह चुनाव लड़ते थे. हम सीधे-सीधे ये कह सकते हैं कि 1996 से 2014 तक वे मेरे सासंद रहें. रघुवंश प्रसाद सिंह को लोग 'ब्रह्म बाबा' कहते थे. उनके समर्थक इस नाम को इज्जत से लेते थे तो कुछ विरोधी मजाक भी बनाते थे. रघुवंश प्रसाद सिंह ऐसे पहले बड़े नेता थे जिन्हें मैंने देखा. 2009 के लोकसभा चुनाव में राजद से रघुवंश प्रसाद सिंह मैदान में थे तो उनके सामने बाहुबली मुन्ना शुक्ला. उस समय इस बात की खूब चर्चा हुई कि रघुवंश प्रसाद सिंह यानि 'ब्रह्म बाबा' का समय खत्म हो चुका है और वे बूढ़ा गए हैं. मुझे याद है कि इसके जवाब में उन्होंने एक जनसभा में इस तरह का शायद कुछ कहा था कि 'लईका बार-बार, बूढ़वा एक के बार'. उस चुनाव में रघुवंश प्रसाद सिंह जीत गए. इस दौरान जब भी मैंने देखा वो लगातार घर-घर न सही लेकिन अपने क्षेत्र में आते-जाते रहे, कई बार किसी के दुख-सुख में भी उनको पहुंचते हुए देखा. 2014 का लोकसभा चुनाव हुआ, हमें ये लगता था कि चाहे जितनी भी मोदी लहर हो, राजद और कांग्रेस की हवा खराब हो लेकिन रघुवंश प्रसाद सि...

दिलों में तूफ़ान सा है

दिलों में तूफ़ान सा है ये दौर इम्तिहान सा है रात-दिन बेकरार सा है चाँद-सूरज अंधकार सा है मन उचाट सा है दुखों का अंबार सा है ज़िन्दगी अजाब सा है जीना इंतेक़ाम सा है मंज़िल का इंतज़ार सा है रास्ते में अनगिनत पहाड़ सा है ख़ुद पर ऐतबार सा है उम्मीद बरसात सा है सपने बेहिसाब सा है अभी पाना ख़्वाब सा है दिलों में तूफ़ान सा है

सुशांत सिंह राजपुत और राहुल गांधी

राजनीति और बॉलीवुड को मिक्स करना सही तो नहीं होगा और नहीं किसी एक्टर की किसी नेता से तुलना करना लेकिन राहुल गांधी को देखकर कई बार हिम्मत बनती है. मैं ख़ुद को उनके सामने रख कर देखता हूं तो टूट जाता हूं. इसके पीछे कई कारण है. सुशांत सिंह राजपुत की आत्महत्या के पीछे की कुछ भी सही जानकारी अभी हमारे पास नहीं है. लोग असफलता (हालांकि किसी भी दृष्टि से उन्हें असफल नहीं कहा जा सकता फिर भी हो सके उन्हें कोई कमी लगी हो), रिलेशनशिप और कई तरह की बातें क र रहे हैं. इस मौके पर मुझे राहुल गांधी की इसलिए याद आई कि इस बंदे की पिछले 7 सालों में ऐसी इमेज़ बनाई गई, एडिट कर-करके इतना बड़ा पप्पू बनाया गया कि हर तरफ लोग उनका नाम सुनते ही हंस देते हैं. हालांकि राजनीति में ये सब होता है लेकिन जिस प्रकार का प्रहार राहुल गांधी पर हुआ ऐसा शायद ही किसी पर हुआ होगा या उसकी इमेज़ ही वैसी रही होगी. ऐसे में किसी भी इंसान के लिए मुश्किल होता है इतना मजाक और ऐसा मजाक कि अगर आप किसी बच्चे या किसी के साथ भी कहीं पर करके देख लें वे आपसे कतराने लगेंगे, छुपने लगेंगे, कैद होने लगेंगे, कॉन्फिडेंस खोने लगेंगे लेकिन राह...

मजदूर हैं, मजबूर हैं और घरों से बहुत दूर हैं

मजदूर हैं, मजबूर हैं और घरों से बहुत दूर हैं कोई साइकिल से सफर कर रहा है, कोई पैदल ही चल रहा है किसी के पास थोड़े पैसे हैं, किसी के खाली पॉकेट हैं किसी के गर्भ में बच्चा है, किसी के कंधे पर बैठा है मंजिल उनका घर है, बहुत लंबी डगर है मजदूर हैं, मजबूर हैं और घरों से बहुत दूर हैं चल वे भी रहे हैं जो ठीक से चल भी नहीं पा रहे हैं गांव भी वही जा रहे हैं जो गरीबी की सूची से बाहर नहीं हैं पास चप्पल भी नहीं है लेकिन उन्हें चलने से डर नहीं है सरकार है, आस है लेकिन सब निराश कम नहीं हैं मजदूर हैं, मजबूर हैं और घरों से बहुत दूर हैं साथ में कुछ सामान हैं, देखें तो लगता है जैसे आसमान है भूखा-प्यासे, पैदल हैं और गाड़ी पर भी सैकड़ों सवार हैं, रास्ते में खड़े मददगार हैं परिवरा भी परेशान है, प्रशासन ने कर रखे क्वारंटीन के इंतजाम हैं देश में संकट का ये नया अंदाज़ है, हल नहीं इसका आसान है मजदूर हैं, मजबूर हैं और घरों से बहुत दूर हैं कोई रो-रोकर रास्ता काट रहा है, कोई थकान मिटाने को हंसता एक बार है किसी की मौत रास्ते में करती इंतज़ार है, कोई करता सिस्टम की शिकायत कई बार है इस बीच सरकार ने शायद ऐसा स...

आज़म ख़ान के जितने बुरे क्यों नहीं फंसते ओवैसी?

                                                 हालिया कुछ सालों में देश में दो ऐसे मुस्लिम नेता रहे हैं जिनकी जमकर चर्चा हुई. एक, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र, यूपी के पूर्व कैबिनेट मंत्री, रामपुर के सांसद और सपा के कद्दावर नेता मोहम्मद आज़म ख़ान तो दूसरे हैं लंदन से लॉ की पढ़ाई करने के बाद सिसासत में आने वाले हैदराबाद के सांसद और एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी. इन दोनों में एक ख़ास अंतर ये है कि आज़म ख़ान ने जहां विरासत की सियासत पर वार करके अपनी पहचान बनाई तो वहीं ओवैसी ने अपने दादा अब्दुल वाहिद ओवैसी की राजनीतिक पार्टी को आगे बढ़ाकर एक नई ऊंचाई दी. हालांकि अगर दोनों की ख़ास समानता देखें तो आज़म ख़ान और ओवैसी बीजेपी के ख़िलाफ़ काफी मुखर हैं. दोनों विवादित बयानों के लिए जाने जाते हैं. इन दिनों आज़म जहां जेल में बंद हैं तो वहीं ओवैसी अपने चिर-परिचित अंदाज़ में लगातार केंद्र की मोदी सरकार पर हमलावर हैं. पिछले कुछ महीनों में आज़म ख़ान ...