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आज़म ख़ान के जितने बुरे क्यों नहीं फंसते ओवैसी?

                                                


हालिया कुछ सालों में देश में दो ऐसे मुस्लिम नेता रहे हैं जिनकी जमकर चर्चा हुई. एक, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र, यूपी के पूर्व कैबिनेट मंत्री, रामपुर के सांसद और सपा के कद्दावर नेता मोहम्मद आज़म ख़ान तो दूसरे हैं लंदन से लॉ की पढ़ाई करने के बाद सिसासत में आने वाले हैदराबाद के सांसद और एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी.

इन दोनों में एक ख़ास अंतर ये है कि आज़म ख़ान ने जहां विरासत की सियासत पर वार करके अपनी पहचान बनाई तो वहीं ओवैसी ने अपने दादा अब्दुल वाहिद ओवैसी की राजनीतिक पार्टी को आगे बढ़ाकर एक नई ऊंचाई दी. हालांकि अगर दोनों की ख़ास समानता देखें तो आज़म ख़ान और ओवैसी बीजेपी के ख़िलाफ़ काफी मुखर हैं. दोनों विवादित बयानों के लिए जाने जाते हैं. इन दिनों आज़म जहां जेल में बंद हैं तो वहीं ओवैसी अपने चिर-परिचित अंदाज़ में लगातार केंद्र की मोदी सरकार पर हमलावर हैं.

पिछले कुछ महीनों में आज़म ख़ान पर ऐसे कार्रवाई हुई कि अंत में उन्हें जेल जाना ही पड़ा. इसके लिए बहुत सारे लोग यूपी की योगी और केंद्र की मोदी सरकार को ज़िम्मेदार मानती है. यही कारण है कि कुछ लोगों के मन में ये सवाल उठ रहा है कि आखिर आज़म ख़ान को इस तरह तोड़ने पर बीजेपी क्यों आमदा है या लग रही है. वहीं ओवैसी के इतने कथित भड़काऊ बायन के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं होती. आज़म ख़ान और ओवैसी दोनों ने वकालत की पढ़ाई की हैं, भले वे इसकी प्रैक्टिस नहीं करके एक्टिव राजनीति में हैं. इन दोनों मुस्लिम नेताओं के बीच कुछ ऐसे अंतर हैं जिनको जानने के बाद बहुत सारे सवालों के जवाब महसूस किये जा सकते हैं.

आज़म और ओवैसी की राजनीतिक 'ज़मीन'
सबसे पहले अगर आज़म ख़ान की बात करें तो रामपुर में एक छोटा-सा टाइपिंग सेंटर चलाने वाले मुमताज ख़ान के बेटे आज़म ख़ान अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्र नेता रह चुके हैं, अपातकाल के दौरान जेल भी गए, जेल से आते ही विधानसभा का चुनाव लड़ गए पर रामपुर के नवाब खानदान के और कांग्रेस के प्रत्याशी मंज़ूर अली ख़ान से चुनाव हार गए. आज़म खान का असली राजनीति यहीं से एक तरह से कांग्रेस और नवाब खानदान के विरोधी के तौर पर शुरू हुई और फिर विधायक, सांसद, मंत्री और सपा के कद्दावर नेता बनने के साथ-साथ अब कैदी भी बन चुके हैं. एक तरीके से ये कहा जा सकता है कि आज़म ख़ान को अपनी सियासी ज़मीन तैयार करने में बहुत पसीने बहाने पड़े.

असदुद्दीन ओवैसी की बात करें तो उन्होंने राजनीतिक करियर की शुरुआत लॉ की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1994 में आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनाव से की थी. इस चुनाव में उन्होंने चारमीनार विधानसभा क्षेत्र से जीत भी हासिल की. इसके बाद हैदराबाद से सांसद बने और फिलहाल अपनी पार्टी के अध्यक्ष भी हैं. हालांकि ओवैसी की ज़मीन उनके दादा अब्दुल वाहिद ओवैसी और पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी ने ही तैयार कर दी थी जिस सिर्फ फैलाना था. दादा और पिता की जो लाइन थी मुस्लिम राजनीति को लेकर ओवैसी उसी पर अपनी लकीर लंबी कर रहे हैं.

इससे साफ पता चलता है कि आज़म के पास अपनी कोई राजनीति विरासत नहीं थी, नहीं उनकी कोई पार्टी थी और न बनाई जबकि ओवैसी के लिए राजनीतिक पिच पहले से तैयार थी और उन्हें सिर्फ बैटिंग करनी थी. 

आज़म और ओवैसी की 'मुस्लिम' राजनीति
आज़म ख़ान और ओवैसी की राजनीति भी लगभग एक तरीके की रही है. दोनों पर मुस्लिमों की राजनीति करने के आरोप लगते हैं लेकिन आज़म खान और ओवैसी इस नकारते भी रहे हैं. हालांकि कुछ लोग आज़म को लेकर ये कहते हैं कि उनके भाषण भले मुसलमानों के दर्द को बयान करते हैं लेकिन उस तरह उन्होंने कभी दवा नहीं की.

आज़म की तरह ही ओवैसी भी मुसलमानों के हक़ और दर्द की बात को दुनिया के सामने लाने करने का दावा करते हैं तो वहीं बीच-बीच में उनके कुछ काम जैसे स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल चलाने के साथ-साथ और हुकूमत के सामने जिस तरह मुसलमानों बात रखते हैं उससे धीरे-धीरे उनकी पहुंच देशभर के मुसलामनों तक पहुंची है. हालांकि मुस्लिम समाज भी कई लोग हैं जो ओवैसी की राजनीति को पसंद नहीं करते.

इससे ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जहां आज़म ख़ान ने अपनी ज्यादा राजनीति सपा के साथ रहते हुए की और कई बार मंत्री भी बने और सपा के कद्दावर नेता. इसके बावजूद उनकी ज़मीन कहीं न कहीं रामपुर तक ही सिमट कर रह गई. वहीं ओवैसी की ख़ुद की पार्टी है और अब वे सिर्फ हैदराबाद तक सिमट कर नहीं रह गए हैं बल्कि देश के कई राज्यों में उनकी पार्टी मौजूद है. उनके पार्षद हैं, महाराष्ट्र में एक एमपी और 2 एमएलए हैं, बिहार में एक एमएलए हैं, जहां ये सब नहीं हैं वहां भी उनका संगठन है और उन्होंने अपनी पार्टी को एक नई पहचान दी है. यही कारण है कि पार्टी के अंदर हो या बाहर आज़म ख़ान से ज्यादा ताक़तवर नेता बन चुके हैं.

आज़म और ओवैसी के राजनीतिक 'दुश्मन'
आज़म ख़ान यूपी की एक बड़ी पार्टी के बड़े नेता हैं और कई बार यूपी के मंत्री रह चुके हैं. ऐसे में स्वाभाविक है कि उनके कई दुश्मन भी बने होंगे या किसी की आंखों की किरकिरी. जबकि ओवैसी के भी कई दुश्मन हो सकते हैं लेकिन आज़म ख़ान के दुश्मन की तरह नहीं क्योंकि ओवैसी कई बार सत्ता को समर्थन तो किया है, जैसे- कांग्रेस की सरकार को केंद्र और राज्य दोनों जगह लेकिन कभी मंत्री नहीं बने. नहीं सरकार में कोई पद लिया.

ओवैसी ने कई बात ये बात अपने इंटरव्यू में भी कहा है कि उन्हें किसी मंत्री पद की चाहत नहीं है या ये भी हो सकता है उनकी एक रणनीति हो क्योंकि कई बार मंत्री या कोई पद लेने के बाद नेता कई तरह के विवादों में फंस जाते हैं ऐसे में उन्होंने इससे दूरी बनानी ही बेहतर समझी हो.

ऐसे में कहा जा सकता है कि आज़म ख़ान से ज्य़ादा ओवैसी राजनीतिक समझ रखते हैं क्योंकि कोई पद नहीं लेकर किसी भी तरह के विवादों से बचने की कोशिश की और अभी भी कर रहे हैं. यहीं नहीं अपने भाई और विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी के साथ-साथ पार्टी के दूसरे नेताओं को भी ऐसी चीज़ों से दूर रखते हैं जबकि आज़म यहीं फंस गयें.

आज़म और ओवैसी की राजनीतिक 'टक्कर'
आज़म और ओवैसी की स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक राजनीतिक टक्कर कई नेताओं और पार्टी से है. लेकिन यहां भी एक अंतर ये दिखता है कि आज़म जहां रामपुर में एक जमी-जमाई और नवाब खानदान की सियासत से टक्कर ले रहे थे तो वहीं ओवैसी की स्थापित हो चुकी पार्टी से निकलकर एक चुनौती पेश करने के लिए दूसरी पार्टी बनी एमबीटी. हैदराबाद में हालांकि एमबीटी की स्थिति इतनी मजबूत नहीं हुई है कि ओवैसी के सामने मुश्किल खड़ी कर सके.

एमबीटी की कमजोरी के कारण ही कहीं न कहीं ओवैसी की पार्टी को हैदराबाद में और शक्तिशाली बना रही है. एमबीटी के राजनीति अनुभव नहीं होने का भी नुकसान हो रहा है तो दूसरी तरफ आज़म ख़ान से पुराना बदला लेने के लिए रामपुर का नवाब खानदान इनदिनों काफी एक्टिव हो चुका है.

आज़म और ओवैसी की परिस्थितियों को देखें तो ये पता चलता है कि स्थानीय स्तर पर भी आज़म की तरह ओवैसी को किसी तरह की मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा रहा है. साथ ही यूपी में इस समय आज़म ख़ान के घोर विरोधी की सरकार है और केंद्र में भी. ऐसे में आज़म ख़ान के बचने के रास्ते मुश्किल हो गए हैं. वहीं ओवैसी को देखें तो उनके राज्य तेलंगाना में उनकी समर्थित टीआरएस की सरकार है भले ही केंद्र में मोदी सरकार हो. ऐसे में ओवैसी किसी भी मुश्किल में पड़ने से बच जाते हैं.

आज़म और ओवैसी की 'जेल' यात्रा
राजनीति में आजम की दूसरी पीढ़ी उतर चुकी है लेकिन अभी रीढ़ आज़म खान ही हैं और इसलिए सबके निशाने पर रहते हैं जबकि ओवैसी की बात करें तो उनकी तीसरी पीढ़ी मैदान में जम चुकी है. आज़म की तरह ही ओवैसी ख़ुद, उनके पिता और दादा भी जेल हवा खा चुके हैं. लेकिन आज़म जैसी मुसिबतों को एक तरह से उनके दादा और पिता अपने सिर लिया और ओवैसी को ऐसी मुसीबतों से बचा लिया. चाहे वह एआईएमआईएम के मुख्य कार्यालय दारुस्सलाम का मामला हो या वक़्फ की ज़मीन पर कब्ज़ा का मामला. जबकि आज़म इस तरह के साये से महरूम रहें.

इसके अलावा भी अगर देखें तो आज़म ख़ान सबसे ज्यादा मुश्किलों में जौहर यूनिवर्सिटी की ज़मीन को लेकर घिरे, उसके बाद फिर और मामले सामने आ गये. वैसे ओवैसी के साथ भी ज़मीन का विवाद है, जिसकी वजह से अकबरुद्दीन ओवैसी पर हमला भी हुआ. लेकिन शायद आज़म ख़ान के सामने जिस तरह का विपक्ष है उस तरह ओवैसी के सामने नहीं है और पूरे मामले में फिलहाल वही भारी कहे जाएंगे.

ऐसे में ये बात उनलोगों को समझने की जरूरत है जो ये कहते हैं कि आज़म ख़ान पर कार्रवाई तो हो जाता है फिर ओवैसी पर क्यों नहीं? बात दरअसल ये है कि अगर राज्य और केंद्र दोनों जगह बीजपी की सरकार हो तो ओवैसी का भी अंजाम आज़म जैसे हो सकता है लेकिन ये समय बताएगा. फिलहाल ये कहा जा सकता है कि जिस तरह देश भर में ओवैसी की पार्टी मजबूत हो रही है उनकी ताक़त भी बढ़ रही है. अगर आज़म वाली गलती समय रहते ओवैसी नहीं करते हैं तो हाल फिलहाल ये कहना मुश्किल है कि उनकी आवाज़ बंद होगी.

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