Skip to main content

पीएम मोदी को बजट में करना चाहिए था पकौड़े के रोजगार के लिए प्रावधान



हाल ही में वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा पेश किए गए बजट में शिक्षा को लेकर कई बातें हैं। वित्त मंत्री के अनुसार सरकार हर बच्चे को शिक्षा देने के लिए प्रतिबद्ध है। सरकार नर्सरी से 12वीं तक की शिक्षा पर जोर दे रही है। सरकार ने अब 20 लाख बच्चों को स्कूल भेजने के लिए सुनिश्चित किया है। अध्यापकों के लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाएगी और टेक्नोलॉजी के माध्यम से शिक्षकों को ट्रेनिंग दी जाएगी।
वहीं इस बार बजट में उच्च शिक्षा के लिए 15 हजार करोड़ बजट बढ़ाया गया है, इससे इस क्षेत्र को 1.3 लाख करोड़ मुहैया करवाए जाएंगे। साथ ही जहां 50 फीसदी से अधिक एसटी जनसंख्या है और 20 हजार जनजाति निवासी हैं, वहां एकलव्य योजना के तहत स्कूल खोल जाएंगे। यह स्कूल 2022 तक खोल जाएंगे और नवोदय स्कूल के आधार पर होंगे। सरकार प्राइवेट सेक्टर के शिक्षण संस्थानों को लाभ देने के लिए पहल करेगी। हेल्थ के क्षेत्र में भी सुधार लाने के लिए 24 नए मेडिकल कॉलेज के निर्माण किए जाएंगे और मेडिकल कॉलेजों की संख्या में विस्तार किया जाएगा।
जब शिक्षा के लिए इतना कुछ किया जा रहा है फिर मुझे लगता है नौकरी के लिए भी सरकार की कोई सोच होगी। अगर नहीं होगी, फिर भी ये काम होंगे तो नौकरी के अवसर बनेंगे लेकिन ऐसा क्या हो रहा है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रोजगार के सवाल पर पकौड़े का उदाहरण देना पड़ा? क्या उन्होंने कुछ अंदाज़ा किए बगैर युवा वोटरों से 2 करोड़ नौकरी देने का वादा कर लिया था जो नाटबंदी और जीएसटी के कारण और भी मुश्किल हो गया है?
अगर सच में नौकरी के अवसर बनते नहीं दिख रहे हैं तो शिक्षा पर इतना जो खर्च होगा उससे क्या फायदा? जब नौकरी नहीं दे सकते तो स्कूल, कॉलेज खोलकर बच्चों को बेरोजगार करने से क्या फायदा? अगर ये ज्यादा हो गया तो सरकार ही बताए कि किस बुनियाद पर इमारत खड़ी होने वाली है, जो बच्चों की शिक्षा के लिए फिक्रमंद है और उनमें एक आस जगाई जा रही है? क्योंकि शिक्षा ग्रहण करने के बाद कुछ हद तक तो नौकरी मांगेंगे ही।
इस बीच सरकार ये भी बताने से बच रही है कि 2 करोड़ न सही 2 हज़ार को ही हम नौकरी दे पाएंगे। ताकि युवा अपने आप को उस तरह भी सोच कर तैयार हो।
जब पीएम मोदी ने पकौड़े को रोजगार माना ही है तो एक बेरोजगारों का सम्मलेन बुलाए और उनके सामने 56 इंच के सीने के साथ यही बात बोले। पीएम मोदी छात्रों और बेरोजगारों से पूछे कि क्या वें पकौड़े का रोजगार करने के लिए तैयार हैं? जिस तरह लोगों से अपने भाषण में बुलवाते हैं। मुझे लगता है नामुमकिन है जैसे डॉन को पकड़ना।
जिसको पकौड़े बेचने होंगे वह अपनी आधी उम्र स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, और प्रतियोगी परीक्षा केंद्रों पर क्यों बर्बाद करेगा? वह तो थोड़ा बहुत पढ़ कर वैसे भी पकौड़े बेच कर रोजगार वाला बन सकता है।
पीएम मोदी का रोजगार के सवाल को पकौड़े पर खत्म करना अपने आप में बचकाना लगता है। जबकि मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के पहले से ही ज्यादातर पकौड़े वाले अपना रोजी रोटी चला रहे हैं। लेकिन पीएम ने ऐसे बोला की ये रोजगार भी उन्होंने हीे दिया है और इसमें ये सन्देश भी दिख रहा था जो पीएम ये कहना चाह रहे हों कि नौकरी नहीं मिली तो क्या हुआ? पकौड़ा बेचिए, वह भी एक रोजगार है। फिर सरकार ने बजट में पकौड़े के लिए अलग से पैसा क्यों नहीं रखा? जो बेरोजगारों को सरकार की मदद से रोजगार खोलने में सहायता करता। या ये भी हो सकता था कि शिक्षा के बजट से कुछ हिस्सा निकाल कर पकौड़े, चाय, टमाटर, प्याज, आलू जैसे रोजगार के लिए देते। जिससे शिक्षा और रोजगार में एक बैलेंस होता।
प्रधानमंत्री कोई कॉमेडियन कपिल शर्मा तो हैं नहीं, जो बातों को ऐसे ही मजाक में उड़ा दिया जाए, जिस तरह उनके बयान का मजाक, बेरोजगार (जिसमें ज्यादातर राजनीतिक विरोधी ही दिखते हैं और राजनीतिक पार्टियां) पकौड़ा बनाकर कर रहें हैं।
लेकिन ये भी एक बहुत अच्छी राजनीति या विरोध का तरीका नहीं कहा जा सकता, क्योंकि लोग इसे बहुत हल्के में लेते दिख रहे हैं। इससे अच्छा होता कि इस बयान के आने बाद गंभीर रूप से खासकर ओरिजिनल बेरोजगारों को अगले दिन ही पीएम मोदी, उनके मंत्री या फिर बीजेपी के किसी नेता को पकड़ लेना चाहिए था और इस पर सवाल पूछना चाहिए था कि आपने अपनी सरकार में कितने बेरोजगारों को पकौड़े की दुकान खोलने में सहायता कीकितने लोगों को आपके किसी योजना के कारण पकौड़े की दुकान खोलने में मदद मिली? जैसे- जी न्यूज़ के कारण वहां पर पकौड़े की स्टॉल है।
सवाल ये भी करना चाहिए था कि क्या आपके सरकार में ये दुकान खुले? कुछ तो 30-20-15-10-5 साल से पकौड़ा बेच रहे हैं। ये भी पूछा जाता कि क्यों आपने बरगला कर वोट लिया और 2 करोड़ नौकरी देने की बात कही?
बेरोजगारों के पास एक मौका था इस सरकार को जवाबदेह बनाने का, जिससे आगे की सरकार सीख लेती कि आज के युवा को बरगलाना आसान नहीं, भले गरीब और किसान को धोखा दे सकते हैं।
जिस डिग्री को लेकर आप बेरोजगारी का हुंकार भर रहे हैं उसका सम्मान रखने की जवाबदेही भी आपकी बनती है लेकिन लगता है, ये बेरोजगार भी रास्ता भटक गए हैं। इनको भी इसी में मजा आ रहा हैं। अगर आप ये सवाल कर लिए होते तो अमित शाह की हिम्मत नहीं होती राज्यसभा के अपने पहले ही स्पीच में पकौड़े की बात दोहराने की। लेकिन विरोध करने वालों में ही गंभीरता नहीं दिख रही है।
मुझे जहाँ तक पता है पीएम मोदी के वादे, जैसे 15 लाख एक-एक अकाउंट में, राजनीति से अपराधियों का सफाया, और हर साल 2 करोड़ रोजगार देने का, पर मानहानि का कोई मामला नहीं बनता है लेकिन ऐसे कुछ प्रावधान होना चाहिए कि आप वोटरों से बरगला कर और झूठ बोलकर चुनाव जीतने के लिए कुछ भी वादे नहीं कर सकते, ताकि सरकार भी जवाबदेह बने और लोकतंत्र की बुनियाद और मजबूत हो। इससे फायदा यह होगा कि लोगों को बरगलाया नहीं जा सकेगा और मुद्दों पर बात होगी, जितना किया जा सकता है या हो सकता है। क्योंकि इस तरह आशा दिखाकर निराश करना बहुत ही नाकात्मक्ता का संचार करता है।
तब फिर उस आधार पर चुनाव में मतदाता जिसे वोट करे और जिताए। जैसे किसी भी तरह के काम में होता है, अगर राजनीतिक पार्टियों की ही बात करें तो कार्यकर्ताओं को एक गाइड लाइन दी जाती है उसी हिसाब से चलना होता है पार्टी के अंदर। चाहे किसी कंपनी में आपको पूरी बात बताकर जॉब पर रखा जाता है जैसे- मान लीजिए 20 हज़ार आपको सैलरी मिलेगी। फिर वोटर को क्यों लुभाना, उसे भी जॉब की तरह आपका प्रपोजल पसंद आये तो वोट देगी नहीं तो जो सही लगेगा ओ करेगी। राजनीतिक पार्टियां बात सही रखे ऐसा कोई प्रावधान अब जरूरी है।
फिलहाल की स्थिति ऐसी है कि एक पिता जब अपने बेटे को मेला ले जाने से पहले तमाम वादे करता है, ये खरीद देंगे वो खरीद देंगे लेकिन मेला पहुँच कर पता चलता है कि यार पिता जी का जेब ही खली है। बच्चा रोता हुआ घर आता है और पिता जी उसे किसी खिलौने वाले दूसरे बच्चे के पास भेज देता है कि बेटा जाकर उसके साथ खेलो, बच्चा वहां पहुँच कर उस बच्चे और खिलौने के पीछे भागता रहता है, कभी हाथ छू जाये तो खुश हो जाता है और दूसरे ही पल खिलौने वाला बच्चा खिलौना लेकर भाग जाता है, और वह देखता रोता और उदास सा खड़ा रह जाता है। इस बीच कोई बच्चा ऐसा भी होता है कि दूसरे बच्चे के भी खिलौने को तोड़ देता है फिर किसी का खिलौना नहीं होता, बस दोनों के पास उदासी रहती है।
अगर पीएम मोदी ने पकौड़े पर कुछ बोल ही दिया तो ये जरूरी नहीं कि पकौड़े के पीछे पड़ जाए और खिलौने वाले बच्चे की तरह बर्ताव करें। आप अपने रास्ते पर डंटे रहिए अपने चुने पीएम से रास्ता मांगते रहिए और अपने मंजिल को पाने की कोशिश जारी रखिए।


Comments

Popular posts from this blog

देश की सरकारी उच्च और बेसिक शिक्षण की शिक्षा में इतना अंतर क्यों?

एक तरफ देश में उच्च शिक्षा के लिए आईआईटी,आईआईएम या आईआईएमसी जैसे और भी कई टॉप के सरकारी संस्थान हैं जहां प्रवेश के लिए कठोर परिश्रम करने पड़ते हैं वहीं बेसिक शिक्षा पर ध्यान दे तो वहां कि स्थिति बेहद खराब है। दोनों ही सरकारी संस्था होने के बावजूद शिक्षा व्यवस्था में इतना अतंर क्यों? क्या उच्च शिक्षण संस्थानों की तरह बेसिक शिक्षण संस्थानों में शिक्षा दे पाना कठिन है? क्या बेसिक शिक्षा व्यवस्था को भी उच्च शिक्षा की तरह नहीं बनाया जा सकता? उच्च शिक्षा के लिए छात्रों की संख्या सीमित है वहीं बेसिक शिक्षा के लिए ज्यादा। फिर भी शिक्षा में इतने बड़े अंतर को क्या कम नहीं किया सकता? किया जा सकता है लेकिन उसके लिए सबसे पहला काम है नियमित दूरी पर स्कूलों को होना। इसके बाद शिक्षकों की बहाली में पारदर्शिता लाना। आज भी देश में कहीं-कहीं सरकारी स्कूलों की दूरी बहुत ज्यादा है। स्कूलों में  बच्चों और शिक्षकों का ठीक ठाक अनुपात हो, जिससे पढ़ाई की व्यवस्था बेहतर हो। क्या सरकारी स्कूलों में एडमिशन के लिए भी सरकार सिमतुल्ला, नवोदय या सैनिक स्कूलों जैसी व्यवस्था नहीं कर सकती है? जिससे बेसिक शिक्षा ...

दुनिया के कुछ ही देशों तक क्यों सीमित है क्रिकेट?

क्रिकेट को भले भारत में एक धर्म की तरह देखा जाता हो लेकिन इसकी पहुंच विश्व स्तर पर बहुत कम है ,  क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों को देखें तो ,  फूटबॉल और हॉकी की एक वैश्विक पहचान है। इसके बहुत से कारण हैं ,   अगर नंबर एक पर ध्यान दें तो इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया से निकला क्रिकेट इन देशों के अलावा एशिया के देशों और वेस्टइंडीज तक ही पहुंच पाई। हालांकि आने वाले दिनों में कई जगह आईसीसी प्रतियोगिताएं आयोजित कर रही हैं जिससे आने वाले दिनों में कई और टीमें हमें देखने को मिलेगी लेकिन फिलहाल की स्थिति को देखते हुए लगता है कि इसमं अभी थोड़ा वक्त लगेगा। ऐसा नहीं है कि अन्य देशों ने हाथ नहीं आजमाए हैं ,  बहुत से देशों ने इस क्षेत्र में कोशिश की अपने पैर जमाने की। जिसमें ,  हॉलैंड ,  आयरलैंड ,  नामबिया ,  केन्या ,  यूएई ,  अमेरिका ,  ओमान ,  नेपाल ने भी हाल में ही एंट्री ली है। इन टीमों में सिर्फ एक जेनरेशन ने क्रिकेट खेला ,  उसके बाद बहुत कम दिलचस्पी दिखी या फिर खिलाड़ी नहीं मिले जिससे टीम बन सके। उसके पीछे भी कई कारण है ...