Skip to main content

क्या फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलांद को विश्वास में नहीं ले पाए पीएम मोदी?




देश में मोदी सरकार को सत्ता में आए लगभग चार साल 4 महीने हो चुके है, कुछ महीनों के बाद लोकसभा चुनाव होने वाले हैं, जिसकी तैयारियां भी सभी पार्टियों ने अपने स्तर पर पर शुरू कर दी है। लेकिन उससे ठीक पहले बीजेपी राफेल डील को लेकर चौतरफा घिर गई है।
दरअसल राफेल डील पर फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के बयान के बाद से भारत में राजनीतिक घमासान मचा हुआ है। इस मसले को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पीएम मोदी और अनिल अंबानी पर तीखा हमला बोला है. जिसके बाद बीजेपी ने भी पलवार करते हुए कहा है कांग्रेस घोटलों की जननी है।
ये आरोप-प्रत्यारोप बहुत दिनों तक जारी रहने वाली है लेकिन इन सब बातों को छोड़ भी दिया जाए तो एक बड़ा सवाल ये उठता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लगातार विदेश दौरों खासकर उन देशों में जहां आज तक कोई प्रधानमंत्री नहीं पहुंचा, उससे देश को और पीएम मोदी के इमेज को क्या लाभ मिला? क्या पीएम मोदी के मित्रतापूर्ण व्यावहार से अन्य देशों के भारत से संबंध सुधरे या फिर पीएम मोदी 2014 से बिना किसी मकसद के ही जुलाई 2018 तक 54 देशों की यात्रा की कर चुके हैं जिस पर कुल 1,484 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। गौरतलब है कि विदेश राज्य मंत्री वी.के सिंह ने गत जुलाई माह में राज्यसभा में बताया था।
दूसरी तरफ, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विदेश दौरों पर 9 साल में 642 करोड़ रुपये खर्च हुए थे।
कई सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि विदेश नीति में कहां कमी रह जाती है कि पाकिस्तान, बर्मा, नेपाल से लेकर चीन तक से हमारे संबंध अच्छे नहीं बने पाए,, जबकि हमने हर कोशिश की।
अच्छे संबध रखने के लिए हमारी तरफ से कई कदम उठाए गए लेकिन उनकी तरफ से कोई साकारात्मक पहल नहीं दिखी। हम पाकिस्तान को बात करने के लिए आमंत्रित करते हैं लेकिन उधर से जवाब हमेशा बंदूक से दी जाती है। हम चीन के राष्ट्रपति को बुलाया ताकि दोस्ती का एक संदेश दिया जाए लेकिन चीन हमारी सीमा में घुस गया।
अमेरिका से अच्छे संबंध जरूरी है लेकिन सतर्कता भी बरतनी होगी। क्योंकि वे कभी नहीं चाहेगा कि एक देश उनके सामने मजबूत बने।
सवाल तो ये भी है कि इन सब दौड़ों के पीछे क्या पीएम मोदी का मकसद व्यापारिक डील ज्यादा था क्योंकि ऑस्ट्रेलिया में गौतम अडानी के कोयले की डील हुई, जिसका वहां के स्थानीय लोग विरोध कर रहे हैं। या फिर फ्रांस में राफेल डील को अनिल अंबानी को दिलाने के लिए कई दौरे पीएम मोदी ने वहां किए।
ऐसी क्या बात है फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद से पीएम मोदी गले मिल मिलकर दोस्ती दिखाते रहे, एक अच्छा संबंध प्रदर्शित करते रहे लेकिन एक ही झटके में पीएम मोदी के सारे विश्वासों को तोड़ते हुए डील को पचा नहीं पाए और दुनिया के सामने रख दिया। क्या पीएम मोदी ओलांद को विश्वास में नहीं ले पाए या समझ नहीं पाए।
इसके अलावा भी क्या पीएम बिना किसी योजना, किसी नीति के बिना कई विदेश दौरे किए कि संबंध अच्छे बने। लेकिन सोचने वाली बात है कि सिर्फ मिलने-जुलने से संबंध अच्छे बन जाते हैं। यह भी सवाल उठना लाजिमी है कि इतने रुपये विदेश दौरों पर खर्च हुए उससे देश को क्या मिला? हां ये बिल्कुल है कि कई देशों से संबंध अच्छे बने और कुछ इनवेस्टमेंट के साथ-साथ कुटनीतिक मसलों पर बातचीत हुई, जिसके अच्छे परिणाम आए हो लेकिन फिर भी आने वाले कुछ महीने में पीएम मोदी की कड़ी परीक्षा होगी और उनके विदेश दौरे पर भी तामम सवाल दागे जाएंगे। खासकर राफेल डील का मामला जैसे-जैसे आगे बढ़ेगा और पीएम मोदी जीतना चुप रहेंगे ये और भी विवादित होता जाएगा। लेकिन फिर ये बात देश के सामने आनी चाहिए क्या राफेल डील में किसी तरह घोटालेबाजी हुई अगर हुई है तो मोदी सरकार कैसे अपना बचाव करेगी, जब खुद पीएम मोदी ने कहा कि न खाऊंगा न खाने दूंगा।

Comments

Popular posts from this blog

देश की सरकारी उच्च और बेसिक शिक्षण की शिक्षा में इतना अंतर क्यों?

एक तरफ देश में उच्च शिक्षा के लिए आईआईटी,आईआईएम या आईआईएमसी जैसे और भी कई टॉप के सरकारी संस्थान हैं जहां प्रवेश के लिए कठोर परिश्रम करने पड़ते हैं वहीं बेसिक शिक्षा पर ध्यान दे तो वहां कि स्थिति बेहद खराब है। दोनों ही सरकारी संस्था होने के बावजूद शिक्षा व्यवस्था में इतना अतंर क्यों? क्या उच्च शिक्षण संस्थानों की तरह बेसिक शिक्षण संस्थानों में शिक्षा दे पाना कठिन है? क्या बेसिक शिक्षा व्यवस्था को भी उच्च शिक्षा की तरह नहीं बनाया जा सकता? उच्च शिक्षा के लिए छात्रों की संख्या सीमित है वहीं बेसिक शिक्षा के लिए ज्यादा। फिर भी शिक्षा में इतने बड़े अंतर को क्या कम नहीं किया सकता? किया जा सकता है लेकिन उसके लिए सबसे पहला काम है नियमित दूरी पर स्कूलों को होना। इसके बाद शिक्षकों की बहाली में पारदर्शिता लाना। आज भी देश में कहीं-कहीं सरकारी स्कूलों की दूरी बहुत ज्यादा है। स्कूलों में  बच्चों और शिक्षकों का ठीक ठाक अनुपात हो, जिससे पढ़ाई की व्यवस्था बेहतर हो। क्या सरकारी स्कूलों में एडमिशन के लिए भी सरकार सिमतुल्ला, नवोदय या सैनिक स्कूलों जैसी व्यवस्था नहीं कर सकती है? जिससे बेसिक शिक्षा ...

दुनिया के कुछ ही देशों तक क्यों सीमित है क्रिकेट?

क्रिकेट को भले भारत में एक धर्म की तरह देखा जाता हो लेकिन इसकी पहुंच विश्व स्तर पर बहुत कम है ,  क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों को देखें तो ,  फूटबॉल और हॉकी की एक वैश्विक पहचान है। इसके बहुत से कारण हैं ,   अगर नंबर एक पर ध्यान दें तो इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया से निकला क्रिकेट इन देशों के अलावा एशिया के देशों और वेस्टइंडीज तक ही पहुंच पाई। हालांकि आने वाले दिनों में कई जगह आईसीसी प्रतियोगिताएं आयोजित कर रही हैं जिससे आने वाले दिनों में कई और टीमें हमें देखने को मिलेगी लेकिन फिलहाल की स्थिति को देखते हुए लगता है कि इसमं अभी थोड़ा वक्त लगेगा। ऐसा नहीं है कि अन्य देशों ने हाथ नहीं आजमाए हैं ,  बहुत से देशों ने इस क्षेत्र में कोशिश की अपने पैर जमाने की। जिसमें ,  हॉलैंड ,  आयरलैंड ,  नामबिया ,  केन्या ,  यूएई ,  अमेरिका ,  ओमान ,  नेपाल ने भी हाल में ही एंट्री ली है। इन टीमों में सिर्फ एक जेनरेशन ने क्रिकेट खेला ,  उसके बाद बहुत कम दिलचस्पी दिखी या फिर खिलाड़ी नहीं मिले जिससे टीम बन सके। उसके पीछे भी कई कारण है ...