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BBC...तुमको न भूल पाएंगे!


दुनिया बहुत बदल चुकी है. अब छोटे-छोटे शहरों के सबसे छोटे क़स्बे में भी रंगीन टीवी, डिश और मोबाइल की सुविधा लगभग पहुँच चुकी है. रेडियो की उपयोगिता किसी भी जानकारी के लिए बहुत सीमित हो गई है. लेकिन मुझे याद है कि सन 2000 से पहले से रेडियो मेरे जीवन में आज के मोबाइल जैसे थे. गीत सुनने के लिए स्कूल से भाग कर आते थे. समाचार जानने के लिए रेडियो लेकर चलते थे और मैच की कॉमेंट्री सुनने के लिए साथ में लेकर सोते थे.

सन 2003 में वर्ल्ड कप के बाद क्रिकेट का ऐसा बुखार चला कि रेडियो के कांटे बदल-बदल कर देखते थे कि कुछ पता चल जाए. इसी दौरान एक दिन कांटा बीबीसी के कार्यक्रम पर रुक गया जिसमें भारत और हॉलैंड के बीच हुए हॉकी के मैच की जानकारी दी जा रही थी. फिर वहां से मेरा और बीबीसी का सफ़र शुरू हुआ और फिर बीबीसी के कार्यक्रम का भी बुखार हो गया बल्कि प्यार हो गया. वहीं से बीबीसी से जुड़ने का सिलसिला शुरू हुआ. उस समय सुबह 6:30, 8:00 और शाम में 7:30 और 9:30 बजे प्रोग्राम आते थे. फिर इन सभी कार्यक्रमों का नशा सा लग गया. बिना सुने नींद ही नहीं आती थी. 'बीबीसी हिंदी' सुनते ही दिल को सुकून मिलता था. समाचार सुनाने वालों की आवाज़ दिल में उतार जाती थी. इसके बाद तो बीबीसी उर्दू भी सुनने लगा. Rehan Fazal, Maley Neerav, Ramdatt Tripathi, Pankaj Priyadarshi, Sandeep Soni, Faisal Mohammad Ali, Samiratamj Mishra, Rajesh Joshi, Manak Gupta और बीबीसी उर्दू के भी कई नाम हैं जिनमें Harun Rasheed, Hafeez Chachar, Raheemullah Yusufzai जैसे नाम हैं. इनको सुनने से ऐसा लगता था जैसे सामने से बैठकर समाचार बता रहे हों. जैसे दादा-दादी, नाना - नानी कहानी सुना रहे हों.

मेरे घर के चूल्हे में आंच बाद में लगती थी पहले बीबीसी की आवाज़ गूंजती थी.आँख खुलते ही बीबीसी लगाना और बीबीसी के कार्यक्रम के लिए अलार्म लगाने तक का काम हमने किया. बीबीसी के कार्यक्रम के लिए तो ऐसे जगे हैं जैसे महबूब के लिए लोग जगते हैं. खेल और खिलाड़ी कार्यक्रम के लिए तो शायद शुक्रवार या शनिवार को आता था, उसके लिए इंतज़ार करते थे जैसे प्रेमिका के लिए करते हैं.जब रेडियो की बैट्री खत्म हो जाती थी तो न जाने कितनी बार बीबीसी के कार्यक्रम को सुनने के लिए दादा जी के टॉर्च की बैट्री चुपके से निकाल लेते थे. बीबीसी सुनते थे तो नहीं भी डाँटते थे तो कभी डाँट भी देते थे लेकिन बीबीसी जरूर सुनते थे.

बीबीसी पर इतना विश्वास था कि जब सन 2007 में मैच हो रहा था टी-20 वर्ल्ड कप का फाइनल भारत बनाम पाकिस्तान के बीच तो उस दिन बीबीसी ने उसे कॉमेंट्री के तरह प्रस्तुत किया था. उस दौरान स्टूडियों में कोई पाकिस्तानी खिलाड़ी थे, मुझे नाम याद नहीं आ रहा लेकिन जैसे ही मिस्बाह ने जोगिन्दर शर्मा की गेंद को हवा में उठाया वैसे ही उन्होंने कहा कि मिस्बाह ने लगाया चौक और इसी के साथ पाकिस्तानी ने जीत...इतने पर लगा कि नहीं ऐसा बीबीसी पर कैसे सुन सकते हैं कि उधर से बीबीसी के पत्रकार की आवाज़ गूंजी 'ये कैच हो गया है और भारत ने पाकिस्तान को हरा दिया है' फिर हम झूम उठे थे.

बीबीसी के कार्यक्रम को सुनने के लिए सुबह खेत में रेडियो लेकर जाते थे, किसी काम के लिए बाहर जाते थे तो रेडियो को झोले में रखकर जाते थे कि कहीं बीबीसी का कार्यक्रम न छूट जाए. जिस दिन बीबीसी नहीं सुन पाते थे तो लगता था आज जीवन का सबसे बेकार दिन था. बीबीसी और उनके पत्रकार के लिए फीलिंग पूरे शरीर में फैली है. यही नहीं मैच कितना भी रोमांचक क्यों न हो गया हो बीबीसी के कार्यक्रम के समय पर वही सुनते थे. मेरे छोटे दादा रेडियो अपने पास मंगवा लेते थे सुनने के लिए. बीच में एक बार मुझे साल ठीक से याद नहीं लेकिन उस दौरान भी कार्यक्रम को आर्थिक कारण से बंद करने का ऐलान हुआ था तो हिल गए थे पूरी तरह. लेकिन बाद में श्रोताओं की मिन्नत पर कार्यक्रम में कटौती कर 4 की जगह 2 कर दिया गया था और बीबीसी का कार्यक्रम जारी रहा. उस समय भी खूब भावुक हुए थे. अब भी मेरे घर पर बड़े अब्बा की सुबह और रात बीबीसी के साथ होती है. बीबीसी सुनने के बाद ही उनका दिन और रात होता है लेकिन अब वे भी नहीं सुन पाएंगे.

दिल्ली आने के बाद रेडियो से साथ छूट गया लेकिन घर में बीबीसी और रेडियो से सम्बन्ध बना हुआ था. बीबीसी को रेडियो पर सुने कई साल हो गए लेकिन उसके बाद भी जब हाल ही में सुने कि बीबीसी बंद हो रहा है तो जैसे दिल बैठ गया. सवाल उठा मन में कि क्या श्रोता इतने कम हो गए है जो बंद करना पड़ रहा है लेकिन हो गए होंगे इसमें कोई दो राय नहीं.

आज रेहान फज़ल सर को जब देखा उनकी आँखों में आंसू थे जो मुझ जैसे बीबीसी श्रोता को तोड़ने के लिए काफी थे. उधर उनके आंसू निकल रहे थे इधर हमारे. बीबीसी का हिस्सा होने के नाते के जितना उन्हें दुःख और कमी महूसस हो रही होगी उससे थोड़ा भी कम हमें श्रोता होने के नाते नहीं हैं। बीबीसी का रेडियो प्रसारण अब इतिहास हो चुका है लेकिन जब तक साँस शरीर में है, उसकी ये आवाज़ 'बीबीसी हिंदी' और म्यूजिक कानों में गूंजती रहेगी. पत्रकार बनने की इच्छा भी बीबीसी को सुनकर ही मेरे अंदर जगी थी. फ़िलहाल इस भावुक समय में बस बीबीसी के उन सभी लोगों का बहुत शुक्रिया जिन्होंने हम तक जानकारियां पहुंचाई या पहुँचाने में मदद की. बीबीसी को नहीं भूल सकते और उम्मीद है कि खूब प्यार बीबीसी को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी मिले.

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