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दिल्ली दंगा: दर्द, दवा और दाग़


दंगे का 'दर्द'

दिल्ली में हुए दंगों में अब तक 53 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और सैकड़ों घायल हैं. किसी की दुकान जली तो किसी का मकान और कोई तो स्वयं ही जल गया. एक दंगाई ने दूसरे दंगाई पर गोला चलाई लेकिन मौत ज्यादातर किसी तीसरे की हुई. इस दंगे के बाद बच्चे किताबें ढूंढ़ रहे हैं, दुकानदार बचे सामान, घायल आराम, लापता होने वालों के परिवार उस तक पहुंचने के रास्ते, जो मर गए वो अपनी आत्मा की शांति और उसके परिजन सब्र. अगर कोई कुछ नहीं ढूंढ रहा है तो वो हैं हमारे रहनुमा! क्योंकि सभी जानते हैं कि आज तक इस तरह के जितने भी दंगे हुए हैं क्या कोई अपने दिल पर हाथ रखकर ये बोल सकता है कि पीड़ितों के साथ 100 प्रतिशत इंसाफ हुआ? कोई नहीं बोल सकता. हमारी नेताओं ने शांति की अपील की दी, पुलिस और फोर्स लगा दिया, मुआवज़े का ऐलान भी हो गया और कैंप का निर्माण भी. अब यहां से फिर से ज़िंदगी को नॉर्मल करने की पूरी ज़िम्मेदारी पीड़ितों की. समाज में इतनी नफरत किसने फैलाई, इन दंगों के दोषी कौन हैं, 100 प्रतिशत इंसाफ कैसे हो, इसे आगे कैसे रोका जाये? इसपर कोई चर्चा नहीं होगी. लेकिन अब इस दंगे ने जो दर्द दिया है वो इतिहास में दर्ज़ हो चुका है और जिसने अपना कुछ भी गंवाया हैं उसे ज़िंदगी भर टीस उठती रहेगी.


दंगे की 'दवा'

दिल्ली दंगे में इस बार बाकी दंगों से ज्यादा भाईचारा देखने को मिला. हालांकि सभी भाईचारे को मिला भी लें तो उतना ही भाईचारा देखने को मिला जितने लोग अब तक इस दंगे में मारे जा चुके हैं. इस दंगे से एक और बात साबित होती है कि समाज में आज भी इतने भाईचारे बचे हैं कि करोड़ों के नुकसान, 53 लोगों की मौत और सैकड़ों के घायल होने के बाद भी लोग भाईचारे के नाम पर स्वयं की पीठ थपथपा लें. हालांकि सवाल तो ये भी है कि जब इतने भाईचारे है तो दंगे होते ही क्यों हैं? लेकिन कुछ भी हो इस भयानक दंगे के बाद भाईचारे ने कुछ हद तक दंगे का दर्द पर दवा का काम किया है. उम्मीद ये भी है कि आने वाले समय में पूरे देश में ये भाईचारा देखने को मिले.

दंगे के 'मेहमान'

जिन लोगों ने भी ग्राउंड पर जाकर लोगों से बात की है उन सभी की बातों पर गौर करें तो यही बात निकल कर सामने आती है कि जिन्होंने दंगे किए वो सब मेहमान थे यानि बाहर से आये थे. लेकिन एक हिंदुस्तान का नारा देने वाले भी ये नहीं बोलते कि आखिर थे तो हिंदुस्तानी ही न. नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान से तो नहीं आये थे. हालांकि लोग ये भी नहीं बता पाते कि जब सभी बाहरी थे तो स्थानीय लोगों ने उसे रोकने के लिए क्या किया? ऐसे दंगाई मेहमान को घर में घुसने ही क्यों दिया. अगर स्थानीय कमजोर थे तो फिर इस कहावत को बदल क्यों नहीं दिया जाता कि अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है? नहीं तो ज्यादातर मौके पर ये साबित तो होता है न कि कभी मेज़बान पर मेहमान भारी नहीं पड़ता. ये कोई खेल तो नहीं था न और अगर खेल भी होता तो आपने देखा होगा कि किस तरह अपने देश में कोई भी टीम कितनी मजबूत होती है और मेहमान टीम का हुलिया बिगड़ा देती है...अब हाल ही में देखिये न्यज़ीलैंड में कैसे टी-20 क्रिकेट मैच में पहले 5-0 से भारत यानि मेहमान ने मेज़बान को पटक के रख दिया. फिर मेज़बान ने पलटवार करते हुए वनडे में 3-0 और फिर टेस्ट में 2-0 से हिसाब बराबर भी किया और कर्ज़ भी चढ़ा दिया. इसलिए अगर दंगाई बाहरी थे तो स्थानीय लोग दंगे के समय क्या कर रहे थे? अब ये सवाल उठाना ठीक नहीं लेकिन ये जरूर कहा जा सकता है कि ऐसे बाहरियों से निपटने के लिए आने वाले भविष्य में ह्यूमन चैन बन जाना चाहिए ताकि दवे की जरुरत ही नहीं पड़े.

दंगे 'बाज़'

दंगे में घायल होने वाले और मरने वाले के परिजन कि माने तो एक बात और सामने आती है कि मरने या घायल होने वाला दंगाईयों में शामिल नहीं था. अब ये समझ में नहीं आता कि जो लोग दंगा करते हैं वो क्यों नहीं मरते या घायल होते? आखिर ये दंगाई किस तरह की ट्रेनिंग या तैयारी करते हैं जिनमें उसको कुछ नुकसान नहीं होता और मासूम लोगों की जान चली जाती है. क्या ऐसा भी होता होगा कि ख़ुद को बचाने के लिए इस तरह की बात की जाये? समाज कब दंगाईयों की पहचान करके उसे समाज में जगह देना बंद करेगा? क्योंकि अगर समाज ऐसा करता है तो इतना कहा जा सकता है कि दंगे के मेहमानों से भी छुटकारा मिल जाएगा.

दंगे के 'दोषी'

दिल्ली में दंगा होने पर कई लोगों ने कपिल मिश्रा, वारिस पठान, असदुद्दीन ओवैसी, अनुराग ठाकुर सहित कई नेताओं पर आरोप लगाया दंगा भड़काने का. लेकिन क्या ये सच है? अब कोई शख्स किसी दूसरे से कुएं में कूदने को कहेगा तो क्या वह कूदेगा? ये बात नेताओं के भाषण से ज्यादा लोगों के अंदर मौजूद विष का है. शहर-शहर और गांव-गांव घूम लीजिये पता चल जाएगा कि किस तरह लोगों के अंदर बिना किसी भाषण और मंदिर-मस्जिद की बात के भी नफरत भरी है. क्या है न कि नफरत किसी से भी किसी चीज़ को लेकर हो सकती है. सबसे मुख्य कारण है कि अपने आप को श्रेष्ठ, सुंदर, सुडौल दिखाना और किसी दूसरे को नीच. वैसे भी स्वयं को बेहतर और दूसरे को बुरा बताने के लिए सिर्फ धर्म का ही इस्तेमाल नहीं होता बल्कि ये पूरी लड़ाई अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, अमीर-गरीब वगैरह-वगैरह से शुरू होती है. जहां धर्म और जाति आ जाती है फिर उसकी बात ही कुछ और हो जाती. रही बात नेताओं के दोषी होने की तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हमारे अंदर भी इतनी आग जमा हो चुका है कि पेट्रोल की देखते ही हम ख़ुद ही उसकी तरफ आकर्षित हो जाते हैं. ऐसे में दुकान, मकान और इंसान को राख तो बनना ही पड़ेगा. इसलिए जरुरत इस बात की है कि हम अपने अंदर के दंगेबाज को रोके.

दंगे के 'पूत'

नफरत की बातें या दंगा होने पर नेताओं को लेकर अक्सर लोगों की ये शिकायत रहती है कि उनके बेटे तो अमेरिका में पढ़ते हैं, यहां पढ़ते हैं, वहां पढ़ते हैं और हमारे बच्चे को किताबों की जगह हाथ में आग रहे हैं. अब सीधी सी बात है उनको नेता हमने-आपने बनाया है न. कोई नेता बनता है तो उसकी भी तो इच्छा होती है कि वो विधायक, सांसद, मंत्री और अमीर बने, एक अच्छा जीवन जिये और अपने बच्चों को खूब पढ़ाएं...फिर नेता तो वही करेगा न. जरूरत ये है कि नेताओं को वोट दीजिए, जितना काम हो निकालिये, बहकावे में न आते हुए अपने बच्चे को भटकने से बचाइये और सीमित संसाधन में भी अच्छा इंसान बनाइये. और सबसे बड़ी बात ये कि अपने बच्चे को कोशिश कीजिये कि बचपन से ही धार्मिक किताबों से भी जोड़े ताकि कम से कम उनके अंदर भी धार्मिक तरीके से भी किसी बात और काम की अच्छाई और बुराई को परखने की ताक़त हो. फिर कोई भी नेता अपने भाषणों से दंगा नहीं करा पाएगा.

दंगे के 'दाग़'

सीएए के ख़िलाफ़ जैसे ही प्रदर्शन शुरू हुये थे तभी से इस कानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वालों लोगों में पुलिस को लेकर काफी नकारात्मक संदेश भरा हुआ है. सबसे बड़ी बात ये है कि जब सीएए प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच हिंसक झड़प हुई तो दोनों ओर से कई वीडियो सामने आये जिसको लेकर पुलिस पर ये आरोप लगा कि उनके द्वारा बर्बरता की जा रही है. दंगे के दौरान भी पुलिस पर ये आरोप है कि उसने दूसरे पक्ष के साथ मिलकर एक पक्ष को ठीक करने की कोशिश की. इस तरह के आरोप आप दिल्ली के किसी भी दंगा क्षेत्र में जाकर पीड़ितों से बात करके महसूस कर सकते हैं. हालांकि इससे पहले भी दिल्ली और पुलिस पर इस तरह के दाग़ लगे हैं लेकिन ये दाग़ बिलकुल भी अच्छे नहीं हैं.

दंगे के 'आग'

दिल्ली हिंसा की बुनियाद तभी पड़ गई थी जब सीएए के ख़िलाफ़ हो रहे प्रदर्शन के जवाब में सीएए के समर्थन में भी प्रदर्शन शुरू हो गये. ऐसे में दो पक्ष जब सामने आएंगे तो लाज़िमी है कि संघर्ष होगा. इस स्थिति से निपटने के लिए न सरकार और न ही पुलिस ने तैयारी की. बल्कि कोर्ट में भी मामला लंबा लटका. ये देखने में भी विचित्र इसलिए था क्योंकि ऐसा बहुत कम हुआ है कि प्रदर्शन के जवाब में भी प्रदर्शन हो और हिंसक बातें कही जाए. जहां से बात बिगड़ती चली गई.

दंगे पर 'प्रदर्शन'

दंगा होने के बाद कुछ लोग जहां-तहां प्रदर्शन कर रहे हैं और नारे लगे रहे हैं कि दिल्ली में दंगे नहीं होने देंगे. अब समझ में नहीं आता कि ये लोग ऐसे नारे लगाकर कैसे दंगा रोक सकते हैं और उसमें भी जब ये दंगे हो चुके हैं? ऐसा क्यों नहीं है कि दंगे को रोकने के लिए ये काम पहले ही हो जाते तो ये नहीं होते. लेकिन अब इसपर क्या कहा जाये जब सब कुछ हो गया तो इस प्रदर्शन से कितनी शांति आ पाएगा? हिंदू-मुस्लिम, नेता-नेता,अभिनेता-अभिनेता,इंसान-इंसान में आख़िर क्यों कम्युनिकेशन गैप हो रहा है और मिस कम्युनिकेशन हो रहा है. कोई भी कुछ भी बोल रहा है एक-दूसरे के बारे में. इसका कब अंत होगा? अब कई ऐसे सवाल है जो ज़ेहन में घूमते रहेंगे लेकिन इसका कोई जवाब नहीं मिलेगा. फिलहाल दिल्ली में कई दिनों तक चले दंगे के बाद शांति है.

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